Sardar Patel's vision: The foundation of independent India's forest policy and a timeless green call

Sardar Patel's vision: The foundation of independent India's forest policy and a timeless green call

सरदार पटेल की दूरदृष्टि: स्वतंत्र भारत की वन नीति की नींव और एक कालातीत हरित आह्वान

स्वतंत्र भारत के उषाकाल में, जब राष्ट्र नवनिर्माण की असंख्य चुनौतियों से जूझ रहा था, तब देश के नीति-नियंताओं का ध्यान केवल राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्थाओं पर ही केंद्रित नहीं था, बल्कि राष्ट्र की अमूल्य प्राकृतिक संपदा, विशेषकर वनों के संरक्षण और संवर्धन पर भी गंभीरता से विचार किया जा रहा था। इस संदर्भ में, भारत के प्रथम खाद्य एवं कृषि मंत्री, श्री जयरामदास दौलतराम और तत्कालीन उप-प्रधानमंत्री एवं गृह मंत्री, लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल के बीच फरवरी 1948 में हुआ पत्र-व्यवहार तथा सरदार पटेल का 1950 का देहरादून वन अनुसंधान संस्थान के लिए तैयार किया गया ओजस्वी भाषण, भारत की वन नीति के प्रारंभिक चिंतन और सरदार पटेल की गहन पर्यावरणीय अंतर्दृष्टि को उजागर करते हैं।

1948 का पत्र-व्यवहार

20 फरवरी 1948 को, श्री जयरामदास दौलतराम ने सरदार वल्लभभाई पटेल को एक महत्वपूर्ण पत्र लिखा। इस पत्र में उन्होंने भारत में प्रांतों के परामर्श से वनों के योजनाबद्ध विकास की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने स्पष्ट किया कि वन न केवल एक महान राष्ट्रीय संपत्ति हैं, बल्कि उनका विकास मृदा संरक्षण और कृषि प्रगति के लिए भी अनिवार्य है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक सुसमन्वित अखिल भारतीय नीति की आवश्यकता थी, जिसमें रियासतों की भी महत्वपूर्ण भूमिका हो।

श्री दौलतराम ने तत्कालीन स्थिति का आकलन करते हुए बताया कि त्रावणकोर, मैसूर, ग्वालियर और कश्मीर जैसी कुछ बड़ी रियासतों में तो सुव्यवस्थित वन विभाग थे और वे अपनी वन संपदा की उचित देखभाल कर रही थीं, परंतु कई अन्य रियासतों में स्थिति संतोषजनक नहीं थी। उन्होंने मध्य भारत समूह (रीवा, ओरछा, छतरपुर, पन्ना, भोपाल, इंदौर, देवास, धार), राजपूताना समूह (कोटा, बूंदी में बेहतर प्रबंधन, उदयपुर और जयपुर में सुधार की गुंजाइश, शेष राजपूताना में ईंधन आपूर्ति की समस्या) और काठियावाड़ की रियासतों (जूनागढ़, पोरबंदर, नवानगर, पालिताना, कच्छ में ईंधन और स्थानीय खपत के लिए छोटे लकड़ी के विकास की संभावना) का विशेष उल्लेख किया। साथ ही, दक्कन समूह में कोल्हापुर और पंजाब समूह में टिहरी गढ़वाल को भी वन विकास के लिए महत्वपूर्ण बताया। श्री दौलतराम ने सरदार पटेल से रियासतों का सहयोग प्राप्त करने के लिए उचित कदमों पर सलाह मांगी, ताकि एक अखिल भारतीय नीति तैयार करने से पहले रियासतों की स्थितियों, मौजूदा प्रबंधन प्रणालियों और विकास की संभावनाओं का स्पष्ट पता चल सके।

इसके उत्तर में, सरदार पटेल ने 24 फरवरी 1948 को संक्षिप्त लेकिन सारगर्भित जवाब दिया। उन्होंने कहा कि जब तक यह ज्ञात न हो कि प्रस्तावित अखिल भारतीय योजना किन आधारों पर बनाई जानी है, तब तक कोई भी सलाह देना कठिन है। उन्होंने स्पष्ट किया कि रियासतों से संपर्क करने से पहले हमारे पास एक निश्चित विचार होना चाहिए कि हम उनसे क्या करवाना चाहते हैं। सरदार पटेल ने श्री दौलतराम से उनकी योजना की दिशा स्पष्ट करने का आग्रह किया ताकि रियासती मंत्रालय संबंधित रियासतों का सहयोग और समर्थन हासिल करने में सहायता कर सके। यह पत्र-व्यवहार सरदार पटेल की व्यावहारिक प्रशासनिक शैली और किसी भी पहल से पूर्व सुविचारित योजना की अनिवार्यता पर उनके जोर को दर्शाता है।

सरदार पटेल का हरित आह्वान: 1950 का देहरादून भाषण

इस प्रारंभिक विचार-विमर्श के लगभग दो वर्ष पश्चात, 2 अप्रैल 1950 को देहरादून स्थित प्रतिष्ठित वन अनुसंधान संस्थान (Forest Research Institute) के दीक्षांत समारोह के लिए सरदार पटेल द्वारा तैयार किया गया भाषण, उनके गहन चिंतन और वनों के प्रति उनके असीम प्रेम और पवित्रता की भावना को दर्शाता है। यद्यपि अस्वस्थता के कारण वे इसे व्यक्तिगत रूप से प्रस्तुत नहीं कर सके, तथापि यह भाषण भारत के वन भविष्य के लिए एक दूरदर्शी चेतावनी और एक स्पष्ट आह्वान था।

सरदार पटेल ने वनों को "पृथ्वी पर देवत्व का अद्भुत खजाना" कहा। उन्होंने स्वीकार किया कि मनुष्य ने अपने अस्तित्व के संघर्ष में या प्रकृति के साथ प्रतिस्पर्धा में, अपनी तात्कालिक जरूरतों के लिए निकटतम उपलब्ध संसाधनों का अंधाधुंध और निर्ममतापूर्वक ("कसाई की तरह") दोहन किया है, भविष्य की पीढ़ियों के लिए उनके प्रतिस्थापन की कोई चिंता किए बिना। उन्होंने देश के वन संसाधनों के विनाश के इतिहास को "महत्वपूर्ण राष्ट्रीय संपत्ति के क्रूर शोषण और प्रचुर प्रकृति द्वारा हमारे हाथों में रखी गई पूंजी की आपराधिक बर्बादी" के उदाहरणों से भरा बताया।

पटेल ने संरक्षण और प्रतिस्थापन के सिद्धांत पर आधारित संसाधनों के योजनाबद्ध दोहन पर बल दिया। उनका मानना था कि यद्यपि सदियों की क्षति को तुरंत पूरा नहीं किया जा सकता, फिर भी विवेकपूर्ण योजना और प्रबंधन से उपलब्ध संसाधनों का संरक्षण और नई संपत्ति का सृजन संभव है, जो वनीकरण और कटाई के बीच वैज्ञानिक संतुलन स्थापित कर सके।

उन्होंने वनों की सार्वभौमिक उपयोगिता पर प्रकाश डालते हुए कहा कि झोपड़ी में रहने वाले ग्रामीणों से लेकर शहरों के आलीशान भवनों में रहने वाले अमीरों तक, सभी अपनी मूलभूत आवश्यकताओं के लिए वनों पर निर्भर हैं। परंतु, उन्होंने इस बात पर खेद व्यक्त किया कि कितने कम लोग उन पेड़ों और पौधों के प्रति श्रद्धा और सम्मान का भाव रखते हैं जो मानव जाति की सेवा में स्वयं का बलिदान कर देते हैं।

आंकड़ों का हवाला देते हुए, सरदार पटेल ने चिंता व्यक्त की कि भारत का कुल वन क्षेत्र मात्र 1,71,000 वर्ग मील था, जो कुल भूमि क्षेत्र का केवल 22.6% था। उन्होंने इसे हमारी विशाल जनसंख्या की आवश्यकताओं और जलवायु की कठोरता को कम करने की जरूरत के हिसाब से अपर्याप्त बताया। उन्होंने अनुमान लगाया कि खुले और वनाच्छादित क्षेत्र के बीच संतुलन के लिए हमें अपने वन क्षेत्र में कम से कम एक-तिहाई की वृद्धि करनी होगी।

सबसे महत्वपूर्ण बात, उन्होंने पर्यावरणीय संकटों की ओर ध्यान आकर्षित किया जो उस समय भी स्पष्ट होने लगे थे – पूर्वी तट पर मानसून की विफलता, उत्तरी गुजरात और सौराष्ट्र में मानसून की अनियमितता, और राजपूताना के मरुस्थल का गंगा के मैदानी इलाकों की ओर बढ़ता अतिक्रमण। उन्होंने प्रश्न किया कि क्या यह सब हमारे वन क्षेत्रों को इस प्रकार व्यवस्थित करने की आवश्यकता का सुझाव नहीं देता कि लाखों लोगों के जीवन और खुशहाली के लिए संभावित आपदा को टाला जा सके? उन्होंने जलवायु को संतुलित करने, मरुस्थलीकरण के बढ़ते खतरे को रोकने और नदियों द्वारा उपजाऊ मिट्टी के कटाव को रोकने में वनों की अपरिहार्य भूमिका को रेखांकित किया।

सरदार पटेल ने स्पष्ट चेतावनी दी, "यदि हमें अस्तित्व के इस बढ़ते संघर्ष में टिके रहना है, तो हमारी संपत्ति के क्षरण की इस प्रक्रिया को रोकना होगा और हमें एक राष्ट्रव्यापी वनीकरण योजना बनानी होगी।" उन्होंने राष्ट्र-निर्माण की इस आवश्यक गतिविधि की उपेक्षा को "राष्ट्रीय अपकार" और "प्रशासन तथा नागरिकता के एक महत्वपूर्ण कर्तव्य के निर्वहन में हमारी विफलता" बताया।

उन्होंने वैज्ञानिक कटाई के साथ-साथ नए विकास पर जोर दिया, ताकि वन संपदा की हानि की भरपाई हो सके। उनका मूलमंत्र था: "हम जितना नष्ट करें, उससे अधिक का सृजन करें।" उन्होंने सभी गैर-कृषि योग्य भूमि, जिसे वृक्षारोपण के तहत लाया जा सकता है, को मूल्यवान वन संपदा उत्पन्न करने या प्राकृतिक आपदाओं के विरुद्ध प्रहरी के रूप में कार्य करने वाली भूमि में बदलने का आह्वान किया।

अपने भाषण के अंत में, पटेल ने वन विज्ञान के विशेषज्ञों से आग्रह किया कि वे अपने ज्ञान को विनम्रता के साथ धारण करें और आम आदमी के साथ सहानुभूति, समझ और विचार के साथ व्यवहार करें। उन्होंने स्नातकों से अपनी सेवा को केवल एक करियर के अवसर के रूप में नहीं, बल्कि कर्तव्य के क्षेत्र के रूप में देखने की अपील की। उन्होंने कहा, "कभी-कभी आपके सिर बादलों से ऊपर हों तो अच्छा है, लेकिन धरती माता पर अपनी पकड़ कभी न खोएं।"

1948 के पत्र-व्यवहार से लेकर 1950 के भाषण तक, सरदार पटेल की सोच में वनों के प्रति एक स्पष्ट और दृढ़ दृष्टिकोण विकसित होता दिखता है। प्रारंभिक प्रशासनिक चिंताओं से आगे बढ़कर, उन्होंने वनों को राष्ट्र के पारिस्थितिक, आर्थिक और सामाजिक कल्याण के लिए एक अनिवार्य तत्व के रूप में स्थापित किया। उनकी चेतावनी और उनका आह्वान आज भी, जब हम जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता के ह्रास और जल संकट जैसी गंभीर चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हैं। सरदार पटेल की यह हरित दृष्टि हमें एक स्थायी और समृद्ध भारत के निर्माण के लिए निरंतर प्रेरित करती रहेगी। यह राष्ट्र निर्माताओं की उस दूरदर्शिता का प्रमाण है जो केवल तात्कालिक नहीं, बल्कि दीर्घकालिक राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि रखती थी।



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Sardar Patel's vision: The foundation of India's oil self-sufficiency laid in 1948

Sardar Patel's vision: The foundation of India's oil self-sufficiency laid in 1948

सरदार पटेल की दूरदृष्टि: १९४८ में भारत की तेल आत्मनिर्भरता की नींव


स्वतंत्र भारत के शुरुआती वर्ष चुनौतियों और अवसरों से भरे थे। राष्ट्र नवनिर्माण के पथ पर अग्रसर था और दूरदर्शी नेताओं के कंधों पर भविष्य की मजबूत नींव रखने की जिम्मेदारी थी। इसी संदर्भ में, १२ जून १९४८ को भारत के लौह पुरुष, सरदार वल्लभभाई पटेल द्वारा तत्कालीन खान और ऊर्जा मंत्री, श्री एन. वी. गाडगिल को लिखा गया एक पत्र, देश की ऊर्जा सुरक्षा और आर्थिक विकास के प्रति उनकी गहरी चिंता और व्यावहारिक दृष्टिकोण को दर्शाता है।

उस समय भारत अपनी तेल आवश्यकताओं के लिए काफी हद तक आयात पर निर्भर था। यह निर्भरता न केवल नागरिक जरूरतों और औद्योगिक विकास के लिए चिंता का विषय थी, बल्कि सेना की परिचालन क्षमता के लिए भी एक महत्वपूर्ण चुनौती थी। सरदार पटेल ने इस स्थिति की गंभीरता को पहचानते हुए इसे "विदेशी देशों के चंगुल से बचने" की आवश्यकता से जोड़ा था।

पत्र में सरदार पटेल ने स्पष्ट किया कि भारत में तेल के ज्ञात भंडार अत्यंत सीमित थे, जिसमें असम का तेल क्षेत्र सालाना केवल २,००,००० टन का उत्पादन कर रहा था। राजपूताना, सौराष्ट्र, कच्छ और त्रिपुरा जैसे क्षेत्रों में तेल की संभावना तो थी, लेकिन कोई पूर्वेक्षण नहीं किया गया है और इसलिए, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है कि क्या संभावनाएँ हैं। त्रिपुरा के आसपास के पूर्वी क्षेत्र में कुछ तेल होने की संभावना है जिसे असम और बर्मा तेल क्षेत्रों का विस्तार माना जाता है लेकिन उस क्षेत्र में भी कोई पूर्वेक्षण नहीं किया गया है। इनमें से कुछ क्षेत्रों को अन्वेषण के लिए कुछ विदेशी हितों को दिया गया था लेकिन युद्ध के कारण कोई प्रगति नहीं हुई।

सरदार पटेल ने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि तेल अन्वेषण एक अत्यंत जोखिम भरा और महंगा कार्य है, जिसमें करोड़ों रुपये खर्च करने के बाद भी सफलता की कोई गारंटी नहीं होती। उन्होंने उल्लेख किया कि कुछ तेल कंपनियाँ पहले ही पूर्वेक्षण पर बड़ी रकम खर्च कर चुकी थीं, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली थी। विश्व स्तर पर, तेल उद्योग पर अमेरिकी और ब्रिटिश समूहों का प्रभुत्व था, जिनके भूवैज्ञानिक अपने ज्ञान को गोपनीय रखते थे।

इन परिस्थितियों को देखते हुए, सरदार पटेल का मानना था कि सरकार द्वारा स्वयं तेल संसाधनों का पता लगाना और उनका दोहन करना अव्यावहारिक होगा। उन्होंने एक "भारत-विदेशी निगम" (Indo-foreign corporation) के गठन का सुझाव दिया, क्योंकि भारतीय निजी क्षेत्र के पास भी इस विशाल कार्य के लिए पर्याप्त संसाधन और विशेषज्ञता नहीं थी। उनका मानना था कि देश को शीघ्र परिणामों की आवश्यकता है, और यह सहयोग के माध्यम से ही संभव हो सकता है।

विदेशी कंपनियों के सहयोग को आकर्षित करने के लिए, सरदार पटेल ने कुछ महत्वपूर्ण शर्तों की ओर इशारा किया:

  1. स्थिरता और दीर्घकालिक व्यवस्था: उत्पादन शुरू होने से लगभग ५० वर्षों की अवधि के लिए समझौता।
  1. निवेश की वसूली और लाभ: अन्वेषण में खोए हुए धन की वसूली और उचित लाभ सुनिश्चित करने का मौका।
  1. प्रारंभिक चरण में मामूली शुल्क: अन्वेषण और पूर्वेक्षण अवधि के लिए शुल्क कम रखा जाए।
  1. खनन पट्टे की लंबी अवधि: सरकार की तत्कालीन औद्योगिक नीति में खनिज तेलों के लिए दस साल की समीक्षा के प्रावधान को स्थगित रखने की आवश्यकता।

सरदार पटेल ने यह भी संकेत दिया कि विदेशी कंपनियाँ शायद सरकार के साथ सीधे पूंजी में भाग लेने के बजाय भारतीय निजी उद्यमों के साथ सहयोग करना पसंद करेंगी। उन्होंने इस मामले पर शीघ्र कैबिनेट निर्णय लेने की तात्कालिकता पर जोर दिया।

यह पत्र न केवल सरदार पटेल की असाधारण दूरदर्शिता को दर्शाता है, बल्कि उनके व्यावहारिक और परिणामोन्मुखी दृष्टिकोण का भी प्रमाण है। वे अन्य मंत्रियों के अधिकार क्षेत्र में आने वाले विषयों पर भी गहराई से विचार करते थे और उन्हें देश की प्रगति के लिए अधिकाधिक उन्नत कदम उठाने के लिए प्रेरित करते थे। उनका एकमात्र उद्देश्य देश और देशवासियों के लिए सर्वोत्तम परिणाम प्राप्त करना था। यह घटना भारत की ऊर्जा आत्मनिर्भरता की दिशा में एक प्रारंभिक, किंतु महत्वपूर्ण विचार प्रक्रिया को रेखांकित करती है।





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27-11-1948 Sardar Patel warned Pakistan to stay away from Kashmir.

सरदार पटेल ने पाकिस्तान को कश्मीर से दूर रहने की चेतावनी दी।


27 नवंबर 1948 को, भारत के उपप्रधानमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने एक जनसभा को संबोधित करते हुए पाकिस्तान को कश्मीर से दूर रहने की कड़ी चेतावनी दी। उनकी यह घोषणा न केवल कश्मीर की अखंडता के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को दर्शाती है, बल्कि उस समय की जटिल भू-राजनीतिक स्थिति में भारत की दृढ़ता को भी उजागर करती है। सरदार पटेल का यह संदेश आज भी भारत की एकता और संप्रभुता के लिए प्रेरणा का स्रोत है।

कश्मीर के प्रति अटल संकल्प


सरदार पटेल ने अपने संबोधन में स्पष्ट किया, "अगर पाकिस्तान ने हमारे साथ अपना भाग्य लिखना तय कर लिया है, तो हम कश्मीर और उसकी जनता को अपने से अलग नहीं करेंगे।" यह कथन कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग मानने की उनकी अटल नीति को दर्शाता है। उन्होंने कश्मीर की जनता के साथ भारत के गहरे भावनात्मक और रणनीतिक जुड़ाव पर जोर दिया, जिसे किसी भी कीमत पर तोड़ा नहीं जा सकता।

पाकिस्तान की धमकियों का जवाब

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में पाकिस्तान के विदेश मंत्री जफरुल्ला खान ने धमकी दी थी कि यदि भारत कश्मीर से अपनी सेना नहीं हटाता, तो पाकिस्तान अतिरिक्त सैन्य बल भेजेगा और हवाई हमलों का सहारा लेगा। इस धमकी का जवाब देते हुए सरदार पटेल ने निर्भीकता के साथ कहा, "हम इस तरह की धमकियों से डरने वाले नहीं हैं।" उन्होंने स्पष्ट किया कि भारत को अपने क्षेत्र की रक्षा करने और आक्रमण से बचाने का पूर्ण अधिकार है। यह कथन भारत की सैन्य और नैतिक ताकत को प्रदर्शित करता है।

हैदराबाद और जूनागढ़ का उदाहरण

सरदार पटेल ने अपने संबोधन में हैदराबाद और जूनागढ़ के उदाहरणों का उल्लेख किया। उन्होंने बताया कि हैदराबाद के निजाम को बार-बार विलय के लिए समझाने की कोशिश की गई, लेकिन उनकी अनिच्छा के कारण स्थिति जटिल हो गई। अंततः, निजाम ने अपनी गलती स्वीकारी और विलय के लिए सहमति दी। इसी तरह, कश्मीर ने भी शुरुआत में अलग-थलग रहने का प्रयास किया, लेकिन समय पर कार्रवाई न करने के कारण पिछले एक वर्ष में कई दुखद घटनाएं हुईं। सरदार पटेल ने जोर देकर कहा कि यदि समय पर उचित कदम उठाए गए होते, तो इन घटनाओं से बचा जा सकता था।

कश्मीर में भारत की त्वरित सहायता

जब कश्मीर के शासक और जनता ने भारत से मदद मांगी, तो भारत ने तुरंत अपनी सेना और संसाधन उनकी सुरक्षा के लिए भेजे। सरदार पटेल ने कहा, "जब जरूरत के समय राज्य ने हमसे संपर्क किया और जनता व शासक दोनों हमारे पास मदद के लिए आए, तो हमने तुरंत उनकी सहायता की।" यह कदम भारत की संवेदनशीलता और जिम्मेदारी को दर्शाता है। हालांकि, युद्ध को एक वर्ष बीत चुका था, और संयुक्त राष्ट्र में यह मुद्दा अभी भी अनसुलझा था।

धमकियों के खिलाफ भारत की दृढ़ता

पाकिस्तान के विदेश मंत्री ने भारत पर अधिक सैन्य बल भेजने का आरोप लगाया और सेना वापस बुलाने की मांग की। इसके साथ ही, उन्होंने हवाई हमलों की धमकी भी दोहराई। सरदार पटेल ने इन धमकियों को खारिज करते हुए कहा, "हम अपने राज्य को विश्वासघात और आक्रमण से बचाने के लिए सेना और सामग्री भेजेंगे। ऐसा करना हमारा अधिकार है।" यह कथन भारत की संप्रभुता और आत्मरक्षा के प्रति उनकी दृढ़ता को रेखांकित करता है।

सरदार पटेल का यह संबोधन कश्मीर की रक्षा और भारत की एकता के लिए उनकी अटूट प्रतिबद्धता का प्रतीक है। उन्होंने न केवल पाकिस्तान की धमकियों का निर्भीक जवाब दिया, बल्कि कश्मीर की जनता और भारत के बीच अटूट बंधन को भी रेखांकित किया। उनका यह संदेश आज भी हमें सिखाता है कि एकता, दृढ़ता और संवेदनशीलता के साथ किसी भी चुनौती का सामना किया जा सकता है। सरदार पटेल की यह चेतावनी भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण पल है, जो हमें अपनी संप्रभुता और एकता की रक्षा के लिए प्रेरित करता है।



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05-01-1948 Kashmir and the unity of India: Sardar Patel's historic speech at Kolkata

कश्मीर का एक इंच भी नहीं छोड़ा जाएगा : सरदार पटेल ने बंगाल के लोगों को विश्वास दिलाया 

5 जनवरी 1948 को, कोलकाता के मैदान में एक विशाल जनसभा को संबोधित करते हुए, भारत के उपप्रधानमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने देशवासियों से धैर्य, एकता और सहनशीलता बनाए रखने की भावपूर्ण अपील की। इस संबोधन में उन्होंने कश्मीर की अखंडता, भारत की एकता, और विभाजन के बाद की चुनौतियों पर अपने विचार स्पष्ट रूप से व्यक्त किए। सरदार पटेल का यह संदेश न केवल उस समय की परिस्थितियों के लिए प्रासंगिक था, बल्कि आज भी यह भारत के लिए प्रेरणा का स्रोत है।

कश्मीर की अखंडता का संकल्प

सरदार पटेल ने अपने संबोधन में कश्मीर के मुद्दे पर भारत की दृढ़ स्थिति को रेखांकित किया। उन्होंने कहा, "कश्मीर का एक इंच भी नहीं छोड़ा जाएगा।" यह कथन भारत की संप्रभुता और कश्मीर के प्रति अटूट प्रतिबद्धता को दर्शाता है। उन्होंने जनमत के सिद्धांत का समर्थन करते हुए स्पष्ट किया कि यदि कोई बलपूर्वक निर्णय थोपने का प्रयास करेगा, तो भारत जवाबी कार्रवाई के लिए तैयार है।

पाकिस्तान के साथ मतभेदों को सुलझाने में भारत की उदारता का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि भारत सहिष्णुता का पालन करना चाहता है। लेकिन यदि पाकिस्तान भारत से प्राप्त संसाधनों का दुरुपयोग करके भारत पर हमला करता है, तो इसे बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। यह संदेश भारत की शांति और दृढ़ता के बीच संतुलन को दर्शाता है।

बंगाल के विभाजन का दर्द और एकता की अपील

पूर्वी और पश्चिमी बंगाल के विभाजन से बंगाल की जनता को हुए कष्ट के प्रति गहरी सहानुभूति व्यक्त करते हुए सरदार पटेल ने कहा कि अब यह प्रश्न उठाने का समय नहीं है कि विभाजन क्यों स्वीकार किया गया। इसके बजाय, हमें बुराई से अच्छाई निकालने पर ध्यान देना चाहिए। उन्होंने जोर देकर कहा कि विभाजन के बावजूद दोनों बंगालों के बीच शत्रुता की दीवार नहीं बननी चाहिए। यह अपील बंगाल के लोगों को एकजुट रहने और आपसी मित्रता को बढ़ावा देने का संदेश देती है।

विभाजन के बाद की चुनौतियां और उपलब्धियां

विभाजन के बाद भारत को कई जटिल चुनौतियों का सामना करना पड़ा। सरदार पटेल ने अपने संबोधन में उन उपलब्धियों का उल्लेख किया, जो इस कठिन समय में हासिल की गईं। उन्होंने सेना और भंडारों के विभाजन, साथ ही 40 से 50 लाख लोगों की अदला-बदली को बिना किसी न्यायालय के हस्तक्षेप के सफलतापूर्वक पूरा करने का जिक्र किया। यह कार्य इतना विशाल था कि दुनिया की कोई भी सरकार इस बोझ तले दब सकती थी, लेकिन भारत ने इस तूफान से निकलकर अपनी ताकत साबित की।

भारत की आर्थिक और सैन्य चुनौतियां

सरदार पटेल ने भारत की तत्कालीन संकटपूर्ण स्थिति का भी वर्णन किया। खाद्यान्न की कमी और आयात की भारी कीमत ने देश को आर्थिक रूप से कमजोर किया था। इसके अलावा, स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए एक सुदृढ़ सेना की आवश्यकता थी, जिसमें थलसेना, नौसेना, और वायुसेना के लिए उचित उपकरणों की जरूरत थी। इन चुनौतियों के बावजूद, भारत ने रियासतों का संविलयन करके देश को विखंडन से बचाया, जो उनकी दूरदर्शिता और नेतृत्व का प्रमाण है।

धर्मनिरपेक्षता और एकता का संदेश

धर्मनिरपेक्षता बनाम हिंदू राज्य के अनावश्यक विवाद की आलोचना करते हुए सरदार पटेल ने स्पष्ट किया कि हिंदू राज्य की बात गंभीर नहीं है। उन्होंने कहा कि भारत में 4.5 करोड़ मुसलमान हैं, जिनमें से कई ने पाकिस्तान के निर्माण में योगदान दिया था। लेकिन उनकी देशभक्ति पर शक करने के बजाय, उन्हें अपनी अंतरात्मा से सवाल करना चाहिए। यह कथन भारत की धर्मनिरपेक्षता और समावेशी नीति को दर्शाता है, जो सभी धर्मों के लोगों को एक साथ जोड़ने पर केंद्रित थी।

पाकिस्तान के लिए संदेश और भारत की आकांक्षा

सरदार पटेल ने पाकिस्तान को संबोधित करते हुए कहा, "अब आप पाकिस्तान पा चुके हैं। इसे स्वर्ग बनाएं, हम इसका स्वागत करेंगे।" उन्होंने यह भी कहा कि यदि भारत ने विभाजन स्वीकार नहीं किया होता, तो देश टुकड़ों में बंट गया होता। लेकिन अब जब भारत एक बड़े हिस्से को एकजुट करने में सफल हुआ है, तो इसे और शक्तिशाली बनाने का समय है। उन्होंने युवाओं से अनुशासन और एकता के साथ कार्य करने की अपील की, ताकि भारत विश्व में अपना गौरवशाली स्थान प्राप्त कर सके।

सरदार पटेल का यह संबोधन भारत की एकता, कश्मीर की अखंडता, और स्वतंत्रता के बाद की चुनौतियों से निपटने की उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति का प्रतीक है। उन्होंने न केवल कश्मीर के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को दोहराया, बल्कि बंगाल के लोगों को एकता और सहिष्णुता का संदेश भी दिया। उनका यह कथन कि "हमें ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिए, जिससे हमारा सिर शर्म से झुक जाए," आज भी हमें प्रेरित करता है कि हम अपनी स्वतंत्रता का उपयोग गर्व और सम्मान के साथ करें। सरदार पटेल का यह संदेश भारत के इतिहास में एक अमर अध्याय है, जो हमें एकजुट और शक्तिशाली राष्ट्र के निर्माण की दिशा में मार्गदर्शन करता है।




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12-05-1948 - Independence of Kashmir and the historical message of Sardar Patel (कश्मीर की स्वतंत्रता और सरदार पटेल का ऐतिहासिक संदेश)

कश्मीर की स्वतंत्रता और सरदार पटेल का ऐतिहासिक संदेश

12 मई 1948 को, कश्मीर में स्वतंत्रता समारोह की पूर्व संध्या पर, भारत के लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल ने मसूरी से देश की भावी पीढ़ियों के लिए एक प्रेरणादायक संदेश दिया। यह वह समय था जब कश्मीर एक जटिल और चुनौतीपूर्ण दौर से गुजर रहा था। सरदार पटेल, जो उस समय स्वास्थ्य कारणों से समारोह में व्यक्तिगत रूप से उपस्थित नहीं हो सके, ने अपने संदेश में कश्मीर के संघर्ष, एकता और भविष्य के लिए अपनी आशाओं को व्यक्त किया।

सरदार पटेल का संदेश और उनका स्वास्थ्य


मार्च 1948 में हृदयघात का सामना करने के बाद, चिकित्सकों की सलाह पर सरदार पटेल को मसूरी में रहना पड़ा। उन्होंने अपने संदेश में कहा, "मैं कश्मीर के स्वतंत्रता समारोह में उपस्थित होकर बहुत प्रसन्न होता, किंतु चिकित्सकों के परामर्श के कारण मुझे इतनी दूर रहकर ही इस समारोह को देखने से संतोष करना पड़ रहा है।" उनकी यह भावना दर्शाती है कि भले ही वह शारीरिक रूप से वहां मौजूद नहीं थे, उनका मन और आत्मा कश्मीर की जनता के साथ थी।

कश्मीर का संघर्ष और उत्तरदायी सरकार

1948 में कश्मीर एक कठिन परिस्थिति का सामना कर रहा था। एक ओर शत्रु ताकतें थीं, जो कश्मीर की शांति और समृद्धि को खतरे में डाल रही थीं, तो दूसरी ओर कश्मीर की जनता अपने अधिकारों और स्वतंत्रता के लिए लंबे समय से संघर्ष कर रही थी। सरदार पटेल ने अपने संदेश में इस बात पर जोर दिया कि कश्मीर में एक उत्तरदायी सरकार की स्थापना, जिसमें शेख अब्दुल्ला को मेहर चंद महाजन की जगह प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया था, एक महत्वपूर्ण कदम था।

शेख अब्दुल्ला ने 27 अप्रैल 1948 को सरदार पटेल को लिखे पत्र में उल्लेख किया था कि "इस राज्य की जनता ने एक लंबे और कड़े संघर्ष के बाद जम्मू व कश्मीर में एक उत्तरदायी सरकार की स्थापना कर ली है।" यह कथन कश्मीर की जनता के दृढ़ संकल्प और उनके संघर्ष की ताकत को दर्शाता है।

भूतकाल की कड़वाहट को भुलाकर भविष्य की ओर

सरदार पटेल ने अपने संदेश में भूतकाल की कड़वाहट को भुलाकर वर्तमान के मित्रतापूर्ण संबंधों और भविष्य के गौरवशाली विकास पर ध्यान देने की बात कही। उन्होंने कहा, "हमें भूतकाल की कड़वाहट की झलक को वर्तमान के हर्षित और मित्रतापूर्ण संबंधों के सामने प्रदर्शित नहीं करना चाहिए।" यह संदेश न केवल कश्मीर के लिए, बल्कि पूरे भारत के लिए एकता और सहयोग का प्रतीक था।

उन्होंने ब्रिटिश शासन के दौरान हुए संघर्षों का भी जिक्र किया, जो लंबे समय तक कड़वाहट और तनाव से भरे रहे। लेकिन ब्रिटिश सरकार ने अंततः सहयोग का रास्ता अपनाया, जिसके परिणामस्वरूप अतीत की घृणा को मित्रता और सहयोग में बदला गया। यह उदाहरण कश्मीर के लिए भी प्रेरणा का स्रोत था, जहां कठिनाइयों के बावजूद एक नई शुरुआत की उम्मीद थी।

कश्मीर के साथ भारत की एकता

सरदार पटेल का संदेश कश्मीर के लोगों के प्रति उनकी गहरी सहानुभूति और समर्थन को दर्शाता है। उन्होंने कहा, "यद्यपि मैं आपके समारोह से दूर रहूंगा, लेकिन मेरा मन पूरी तरह आपके साथ होगा। हमारी पूरी सहानुभूति सदा आपके हाल के वर्षों में किए गए स्वतंत्रता संघर्ष में आपके साथ रही है।" यह कथन भारत और कश्मीर के बीच गहरे भावनात्मक और वैचारिक जुड़ाव को दर्शाता है।

उन्होंने यह भी कहा कि भारत और कश्मीर के बीच की मित्रता समान आदर्शों और साझा लक्ष्यों पर आधारित है। यह मित्रता न केवल अतीत के संघर्षों से मजबूत हुई है, बल्कि भविष्य में भी स्थायी और सकारात्मक संबंधों का आधार बनेगी।




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The mobile office of Assembly President Vithalbhai Patel

એસેમ્બલી પ્રમુખ શ્રી વિઠ્ઠલભાઈ પટેલની હરતી ફરતી ઓફિસ


એસેમ્બલીની બેઠક પૂરી થાય એટલે શ્રી વિઠ્ઠલભાઈ પટેલ મુંબઈ પરત ફરે એટલે પ્રમુખ પોતાની ઓફિસ સાથે લઈને ફરતા. આ ઓફિસ લોટવાળાના મકાનમાં રાખવામાં આવતી અને તેનું ભાડું સરકાર લોટવાળાને આપતી. પહેલા પ્રમુખ બેઠક પૂરી થાય એટલે પોતાની ઓફિસ ક્યારેય દિલ્હી કે સિમલાથી ખસેડતા નહી. પરંતુ વિઠ્ઠલભાઈ પટેલે આ પ્રણાલીનો ભંગ કર્યો, તેમનું માનવું હતું કે પ્રમુખની ઓફિસ તો પ્રમુખની સાથે જ હોવી જોઈએ. તેઓ માન્યતા કે પ્રમુખ જ્યાં સુધી દિલ્હી કે સિમલા માં હોય ત્યાં સુધી જ કામ કરવું અને અલગ શહેરમાં જાય એટલે કામ અટકી પડતું જે વિઠ્ઠલભાઈને પસંદ નહોતું.

વિઠ્ઠલભાઈ પટેલ ઓફિસ મુંબઈ લાવે એટલે તેમના વાંદરા નિવાસસ્થાને કોંગ્રેસ કમિટીનું કામ ચાલતું, આ સમયે પોતાના યુરોપિયન સેક્રેટરી અને કોંગ્રેસ કમિટીના સેક્રેટરીને જાણી જોઈને નજીક સામસામે બેસાડતા અને તેમની પાસે કામ પણ કરાવતા. વિઠ્ઠલભાઈ બતાવવા માંગતા કે કામની દ્રષ્ટિએ પ્રમુખનો સેક્રેટરી અને કોંગ્રેસ કમિટીના સેક્રેટરીનો દરજ્જો સમાન છે અને યુરોપિયન સેક્રેટરીને આ ચૂપચાપ માન્ય રાખી કામ કરવું પડતું.

આવો વિરલો વિઠ્ઠલભાઈ પટેલ 




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1st May 1960 Gujarat Foundation Day Jay Jay Garvi Gujarat

મહાગુજરાતનો હુંકાર, ઇન્દુચાચાનો પડકાર,
મહારાજનું માંગલ્ય: ગરવી ગુજરાતની ગૌરવગાથા



પહેલી મે... ગુજરાત માટે આ માત્ર કેલેન્ડરની એક તારીખ નથી, આ છે સ્વાભિમાનના સંઘર્ષનો વિજય દિવસ, લાખો ગુજરાતીઓના સ્વપ્નની સિદ્ધિનો ઉત્સવ અને એક ગૌરવશાળી રાજ્યના જન્મનો મંગલ પ્રભાત. ગુજરાત સ્થાપના દિવસની ઉજવણી આપણને એ ભવ્ય, પરંતુ કઠિન અને બલિદાનોથી ભરેલા ઇતિહાસની યાદ અપાવે છે, જે મહાગુજરાત આંદોલન તરીકે ઓળખાય છે. આ આંદોલનના પ્રાણ હતા જનનાયક ઇન્દુલાલ યાજ્ઞિક, જેમણે જનતાને જાગૃત કરી, અને આ નવનિર્મિત રાજ્યના શ્રીગણેશ જેના પવિત્ર હાથે થયા, તે હતા ગુજરાતના અંતરાત્મા સમાન પૂજ્ય રવિશંકર મહારાજ. આ ત્રણેય – આંદોલન, નેતા અને સંત – ના તાણાવાણાથી ગરવી ગુજરાતનો પટ રચાયો છે.

૧૯૪૭માં ભારત આઝાદ થયું, પણ દેશનું આંતરિક માળખું ઘડવાનું બાકી હતું. ભાષા અને સંસ્કૃતિના આધારે રાજ્યોની પુનર્રચનાની માંગ દેશભરમાં ઉઠી. કેન્દ્ર સરકારે નિયુક્ત કરેલા રાજ્ય પુનર્રચના પંચ (SRC) એ ૧૯૫૫માં ભલામણ કરી કે મુંબઈ રાજ્યને યથાવત દ્વિભાષી રાખવું, જેમાં મરાઠી અને ગુજરાતી બંને ભાષી પ્રદેશોનો સમાવેશ થાય. આ નિર્ણય ગુજરાતી પ્રજા માટે પોતાની ભાષાકીય ઓળખ, સાંસ્કૃતિક અસ્મિતા અને આર્થિક હિતો પરના પ્રહાર સમાન હતો. તેમને ડર હતો કે વિશાળ મરાઠી ભાષી બહુમતીવાળા રાજ્યમાં તેમનો અવાજ દબાઈ જશે અને વિકાસ રૂંધાશે. આ ભલામણે ગુજરાતીઓના હૃદયમાં અસંતોષની ચિનગારી મૂકી, જેણે ટૂંક સમયમાં મહાગુજરાત આંદોલનની જ્વાળાનું રૂપ લીધું.

ð મહાગુજરાત આંદોલન: જનશક્તિનો ઉદય

મહાગુજરાત આંદોલન (૧૯૫૬-૬૦) શરૂ થયું તેના ઘણા વર્ષો પહેલાં, ૧૯૫૦માં સરદાર વલ્લભભાઈ પટેલ દેવલોક પામ્યા હતા. તેથી, તેઓ સીધી રીતે આ આંદોલનમાં સામેલ ન હતા. પરંતુ, આજના ગુજરાતના નિર્માણના સંદર્ભમાં સરદારનું યોગદાન પાયાનું છે. ભારતની આઝાદી પછી, ૫૬૨ જેટલા દેશી રજવાડાંને ભારતીય સંઘમાં વિલીન કરવાનું ભગીરથ કાર્ય સરદારની કુનેહ, દ્રઢતા અને દૂરંદેશી વિના શક્ય ન હતું. તેમણે એક મજબૂત, અખંડ ભારતનું નિર્માણ કર્યું, જેની અંદર ભવિષ્યમાં ભાષાકીય અને સાંસ્કૃતિક ઓળખના આધારે રાજ્યોની રચના શક્ય બની.

સરદાર પોતે ભાષા આધારિત રાજ્યોની રચના અંગે શરૂઆતમાં ખૂબ ઉત્સાહી ન હતા. દેશની એકતા અને સુરક્ષા તેમની સર્વોચ્ચ પ્રાથમિકતા હતી. તેમને ડર હતો કે ભાષાકીય રાજ્યો સંકુચિત પ્રાદેશિકતાને ઉત્તેજન આપશે અને રાષ્ટ્રીય એકતાને નબળી પાડશે. જોકે, તેઓ પ્રજાની ભાવનાઓને સમજતા હતા. તેમના જીવનકાળ દરમિયાન જ ભાષા આધારિત પ્રાંત રચનાની માંગણીઓ શરૂ થઈ ગઈ હતી. તેમણે જે એકીકૃત રાષ્ટ્રનું નિર્માણ કર્યું, તેની મજબૂત છત્રછાયા હેઠળ જ ભવિષ્યમાં મહાગુજરાત જેવી પ્રાદેશિક અસ્મિતાની માંગણીઓ પ્રબળ બની અને આખરે સફળ થઈ શકી.

અલગ ગુજરાત રાજ્યની માંગ સાથે શરૂ થયેલું આંદોલન શરૂઆતમાં વેરવિખેર હતું. પરંતુ તેને એકસૂત્રે બાંધવાનું, જન-જન સુધી પહોંચાડવાનું અને સરકાર સામે એક પ્રચંડ પડકાર તરીકે ઉભું કરવાનું શ્રેય જાય છે મહાગુજરાત જનતા પરિષદ અને તેના નેતાઓને. આ નેતાઓમાં અગ્રણી, જેમણે લોકોના દિલમાં 'ચાચા' બનીને સ્થાન મેળવ્યું, તે હતા ઇન્દુલાલ કનૈયાલાલ યાજ્ઞિક – ઇન્દુચાચા.

ઇન્દુલાલ યાજ્ઞિક માત્ર એક રાજનેતા ન હતા, તેઓ એક પત્રકાર, લેખક, સમાજ સુધારક અને પ્રખર સ્વાતંત્ર્ય સેનાની હતા. તેમની ઓજસ્વી વાણી, સામાન્ય માણસ સાથે સીધો સંવાદ સ્થાપવાની અદભુત ક્ષમતા અને અતૂટ નિડરતાએ તેમને મહાગુજરાત આંદોલનના નિર્વિવાદ નેતા બનાવી દીધા. જ્યારે સ્થાપિત નેતાઓ દ્વિભાષી રાજ્યના પક્ષમાં હતા અથવા મૌન હતા, ત્યારે ઇન્દુચાચાએ ખુલ્લેઆમ અલગ ગુજરાતનો હુંકાર કર્યો.

ઓગસ્ટ ૧૯૫૬માં અમદાવાદમાં કોંગ્રેસ હાઉસ પાસે વિદ્યાર્થીઓના શાંતિપૂર્ણ દેખાવો પર પોલીસે ગોળીબાર કર્યો અને કેટલાક યુવાનો શહીદ થયા. આ ઘટનાએ આગમાં ઘી નાખ્યું. ઇન્દુચાચાએ આ શહીદીને એળે ન જવા દીધી. તેમણે સભાઓ ગજવી, લોકોને સંગઠિત કર્યા અને સરકાર સામે સીધો મોરચો માંડ્યો. 'લડેંગે ભાઈ લડેંગે, મહાગુજરાત લે કે રહેંગે' જેવા નારા ગુંજવા લાગ્યા. તેમનો પ્રભાવ એવો હતો કે સામાન્ય રિક્ષાવાળાથી લઈને બુદ્ધિજીવીઓ સુધી, સૌ કોઈ તેમની સાથે જોડાયા. સરકારે તેમને જેલમાં પણ પૂર્યા, પણ તેમની લોકપ્રિયતા અને આંદોલન પ્રત્યેની પ્રતિબદ્ધતા અડગ રહી. તેમણે મહાગુજરાત જનતા પરિષદના નેજા હેઠળ આંદોલનને એક એવી તાકાત બનાવી દીધી, જેની સામે દિલ્હીની સલ્તનતને પણ ઝૂકવું પડ્યું. ઇન્દુચાચા એ જનશક્તિના પ્રતીક હતા, જેમણે સાબિત કર્યું કે લોકોનો અવાજ સત્તાના સિંહાસનને પણ હલાવી શકે છે.

મહાગુજરાત આંદોલનનો માર્ગ કાંટાળો હતો. સરકારી દમનચક્ર અવિરત ચાલ્યું. લાઠીચાર્જ, અશ્રુવાયુ, ગોળીબાર સામાન્ય બન્યા. અમદાવાદ, નડિયાદ, વડોદરા, સુરત જેવા શહેરોમાં ૧૦૦થી વધુ યુવાનોએ મહાગુજરાતના સ્વપ્ન માટે પોતાના પ્રાણની આહુતિ આપી. ખાંભી સત્યાગ્રહ જેવા કાર્યક્રમોએ આંદોલનને વધુ વેગ આપ્યો. આ શહીદોનું બલિદાન વ્યર્થ ન ગયું. તેમના રક્તથી સિંચાઈને મહાગુજરાતનો સંકલ્પ વધુ દ્રઢ બન્યો. વિદ્યાર્થીઓ, યુવાનો, મહિલાઓ, કામદારો, ખેડૂતો – સમાજનો કોઈ વર્ગ બાકી ન રહ્યો, જેણે આ લડતમાં પોતાનું યોગદાન ન આપ્યું હોય.


ð પૂજ્ય રવિશંકર મહારાજ: નૈતિકતાનું શિખર અને મંગલ આશીર્વાદ


જ્યારે ચાર વર્ષના સતત સંઘર્ષ બાદ અલગ ગુજરાત રાજ્યનું સ્વપ્ન સાકાર થવાની અણી પર હતું, ત્યારે એક મહત્વનો પ્રશ્ન ઉભો થયો: આ નવા રાજ્યનું ઉદ્ઘાટન કોના હાથે કરાવવું? રાજકીય ખેંચતાણ અને પદની લાલસાથી પર રહીને, કોઈ એવા વ્યક્તિત્વની શોધ હતી જે ગુજરાતની સાચી ઓળખ, તેના મૂલ્યો અને તેની સેવાની ભાવનાનું પ્રતીક હોય. અને ત્યારે સૌની નજર ઠરી ગુજરાતના 'મૂક સેવક' – પૂજ્ય રવિશંકર મહારાજ પર.

રવિશંકર મહારાજ એટલે સાદગી, સેવા અને નૈતિકતાની જીવંત પ્રતિમા. જેમણે પોતાનું જીવન ગુજરાતના દુર્ગમ ગામડાઓમાં, ગરીબો, પીડિતો અને વંચિતોની સેવામાં ખપાવી દીધું હતું. બહારવટિયાઓને સુધારવાથી લઈને દુષ્કાળ અને પૂર જેવી આપત્તિઓમાં રાહત પહોંચાડવા સુધી, તેમનું કાર્યક્ષેત્ર વિશાળ હતું. તેઓ સત્તા અને રાજકારણથી માઈલો દૂર હતા. તેમની નિ:સ્વાર્થ સેવા અને ઉચ્ચ નૈતિક ચારિત્ર્યને કારણે તેઓ સમગ્ર ગુજરાત માટે પિતાતુલ્ય અને આદરણીય હતા.

નવા ગુજરાત રાજ્યનું ઉદ્ઘાટન રવિશંકર મહારાજના હસ્તે કરાવવાનો નિર્ણય એ વાતનો સંકેત હતો કે આ રાજ્ય માત્ર ભૌગોલિક સીમાઓનો સરવાળો નથી, પરંતુ તે સેવા, સંસ્કાર અને પ્રજા કલ્યાણના પાયા પર રચાઈ રહ્યું છે. તેમના જેવા સંતપુરુષના આશીર્વાદથી રાજ્યની શરૂઆત કરવી એ તેના ભવિષ્ય માટે શુભ શુકન સમાન હતું.

ð પહેલી મે, ૧૯૬૦: સ્વર્ણિમ પ્રભાત અને ગુજરાતનો ઉદય

આખરે એ દિવસ આવી પહોંચ્યો. લાખો લોકોની કુરબાની અને ઇન્દુચાચા જેવા નેતાઓના અથાગ પ્રયાસો ફળ્યા. સંસદે બોમ્બે રીઓર્ગેનાઈઝેશન એક્ટ, ૧૯૬૦ પસાર કર્યો. અને પહેલી મે, ૧૯૬૦ ના રોજ, મુંબઈ રાજ્યનું વિભાજન થયું અને મહારાષ્ટ્રની સાથે સ્વતંત્ર ગુજરાત રાજ્ય અસ્તિત્વમાં આવ્યું.

અમદાવાદના સાબરમતી આશ્રમની પવિત્ર ભૂમિ પર, ગાંધીજીના આશીર્વાદ સાથે, અત્યંત સાદગીપૂર્ણ પણ ગરિમામય સમારોહમાં, પૂજ્ય રવિશંકર મહારાજે દીપ પ્રગટાવીને ગુજરાત રાજ્યનું મંગલ ઉદ્ઘાટન કર્યું. તેમના મુખ પર સંતોષ અને આશીર્વાદની ભાવના હતી. તેમણે નવા શાસકોને પ્રજાના સેવક બની રહેવાની શીખ આપી. ડો. જીવરાજ મહેતા ગુજરાતના પ્રથમ મુખ્યમંત્રી બન્યા અને શ્રી મહેંદી નવાઝ જંગ પ્રથમ રાજ્યપાલ. ગુજરાતભરમાં આનંદ અને ઉત્સાહની લહેર ફરી વળી. વર્ષોનો સંઘર્ષ સફળ થયો હતો. 'જય જય ગરવી ગુજરાત'ના નાદથી વાતાવરણ ગુંજી ઉઠ્યું.

મહાગુજરાત આંદોલન એ માત્ર એક રાજ્ય મેળવવાની લડાઈ ન હતી, તે ગુજરાતી અસ્મિતાની પુનઃસ્થાપના, લોકશાહીમાં જનશક્તિનો વિજય અને અહિંસક સંઘર્ષની તાકાતનું ઉદાહરણ છે. ઇન્દુલાલ યાજ્ઞિકનું નેતૃત્વ આપણને શીખવે છે કે જનતા સાથેનો સીધો નાતો અને નિડરતાથી સત્ય કહેવાની હિંમત શું પરિવર્તન લાવી શકે છે. પૂજ્ય રવિશંકર મહારાજનું જીવન અને તેમના દ્વારા રાજ્યનું ઉદ્ઘાટન એ સંદેશ આપે છે કે સાચી સત્તા નૈતિકતા અને સેવામાં રહેલી છે.

ગુજરાત સ્થાપના દિવસ એ માત્ર ઉજવણી કરવાનો દિવસ નથી, પરંતુ એ તમામ શહીદોને, ઇન્દુચાચા જેવા જનનાયકોને અને રવિશંકર મહારાજ જેવા મૂક સેવકોને યાદ કરવાનો, તેમના બલિદાન અને યોગદાનને સન્માનિત કરવાનો અને તેમના સ્વપ્નના ગુજરાતને વધુ સમૃદ્ધ, સંસ્કારી અને ગૌરવવંતુ બનાવવાનો સંકલ્પ લેવાનો દિવસ છે.

 

જય જય ગરવી ગુજરાત!


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Why was the hope of installing a Shivling on historical Brahmashila at the hands of Sardar Patel on the day of Shivratri destroyed?

૧૨૦૦ વર્ષથી પણ જૂની સોમનાથ મંદિરની બ્રહ્મશિલા મહમદ ગઝની પણ હટાવી નહોતો શક્યો, તે બ્રહ્મશિલા પર કેમ સરદાર પટેલના હસ્તે શિવરાત્રીના દિવસે શિવલિંગ સ્થાપનાની આશા નષ્ટ પામી?



સોમનાથ મંદિરની એ ઐતિહાસિક બ્રહ્મશિલા કે જે ૧૨૦૦ વર્ષથી પણ જૂની હશે જ્યારે મહમદ ગઝનીએ સોમનાથ પાટણ પર કરોડોની કિમતનું ઝવેરાત લૂટયું અને શિવલિંગ તોડ્યું અને તેની નજર આ બ્રહ્મશિલા પર પડી, ગઝનીએ એમ માન્યું કે આ શિલા નીચે અમૂલ્ય ખજાનો હશે આથી આ શિલા ખસેડવા પ્રયાસો કર્યા પણ આ શિલા ત્યાંથી એક તસુ પણ ખસી નહી.

સોમનાથના ઐતિહાસિક મંદિરમાં ૧૨૦૦ વર્ષ પુરાણી આ બ્રહ્મશિલા પી. ડબલ્યુ ડી. ખાતાના માણસોની બિનઆવડતના કારણે આશરે ૧૯ નવેમ્બર ૧૯૫૦ના દિવસે તૂટી ગયેલ. દશેરાના દિવસથી જૂના મંદિરની દીવાલો તોડવાનું કાર્ય શરૂ કરવામાં આવેલ અને ૯ મંદિરનો ઘુમ્મટ પર કામ કરતાં માણસોની બિનઆવડતના કારણે આ શિલાના ચાર ટુકડા થયા. ૧૯ ઓકટોબર ૧૯૫૦ના દિવસે સોમનાથ ટ્રસ્ટના કાર્યવાહકો, મધ્યસ્થ સરકારના પ્રધાન કનૈયાલાલ મુન્શી, સૌરાષ્ટ્રના મુખ્ય પ્રધાન શ્રી ઢેબર અને અન્ય અધિકારીઓની હાજરીમાં આ બ્રહ્મશિલા કાયમી રાખી તેના પર શિવરાત્રીના દિવસે સરદાર સાહેબના વરદ હસ્તે સોમનાથ મંદિરના નવા શિવલિંગની સ્થાપના કરવા માટેનું આયોજન કરવામાં આવેલ.

આર્કિયોલોજીસ્ટો મુજબ આ બ્રહ્મશિલા નીચે ખોદકામ થાય તો બીજું મંદિર નીકળવાની શક્યતા છે. પરંતુ ખોદકામ કરતાં પણ મંદિરના ચિન્હો દેખાયા નહોતા. પણ આ બ્રહ્મશિલા ચાર પાકી દીવાલોના ટેકે હતી અને દીવાલો વચ્ચે માટે ભરી તેના પર બ્રહ્મશિલા મૂકવામાં આવેલ હતી.

સોમનાથ ટ્રસ્ટે મંદિરની આજુબાજુના મકાનો ખરીદી લીધા અને બાજુમાં આવેલ પુષ્ટિમાર્ગીય સંપ્રદાયના શ્રી મહાપ્રભુજીની બેઠક તથા શ્રી લક્ષ્મીનારાયણના મંદિરના વિસ્તારનો અમુક ભાગ બાકી રાખી ધરમશાળા તથા બીજા મકાનો તોડી મંદિરની આસપાસનો વિસ્તાર રમણીય સ્થળ તરીકે ફેરવી નાખ્યો. આ સ્થળની વધારે રમણીય બનાવવા ૫૦૦ એકર જમીન પણ સોમનાથ ટ્રસ્ટે ખરીદી લીધી.

આમ, સોમનાથ મંદિરની એ ઐતિહાસિક બ્રહ્મશિલા કે જે ૧૨૦૦ વર્ષથી પણ જૂની હતી તે તૂટી જવાના કારણે તે શિલા પર સરદાર પટેલના હસ્તે શિવલિંગની સ્થાપનાની આશા નષ્ટ પામી.




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HAPPY BIRTHDAY MANIBEN - 03-04-2025

સત્યાગ્રહી વલ્લભનંદીની કુ. મણીબેન પટેલ

આજે કુ. મણીબેન પટેલ સરદાર સાહેબના પુત્રીના જન્મ દિવસે તેમનું સત્યાગ્રહમાં યોગદાન


સફેદ ખાદીના કાપડ ની થીંગડાવાળી સાડી અને કોણી સુધી ની બાંય વાળો બ્લાઉઝ કે પોલકુંસાડી થોડી ઊંચી પહેરેલ અને માથે ઓઢેલી હોયસદાય આ પહેરવેશમાં નજર આવનાર ભારતના નાયબ વડાપ્રધાન અને ગૃહમંત્રીના દીકરી મણીબેન પટેલ - વલ્લભનંદીની એક અલગ દેખાઈ આવતા, સ્વભાવે તેઓ ગરમ મિજાજના અને સદાય સરદાર સાહેબની પાછળ પડછાયો બનીને રહ્યા. મણીબેનનો આટલો જ પરિચય ન હોઈ શકે. મણીબેન પટેલ પોતે સત્યાગ્રહી બન્યા તેની સાથે તેમણે આદર્શ પુત્રીની પણ ફરજ બજાવી.

સરદાર પટેલે ખેડા સત્યાગ્રહથી અંગ્રેજી પોશાક ત્યજી ધોતિયું, કોટ અને ટોપી પહેરવાના શરૂ કર્યા. નરહરિ પરીખ તેમના પુસ્તકમાં ટાંકે છે કે સરદારે તેમના બેરિસ્ટરના ઝભ્ભા ઉપરાંત ડઝનબંધ સૂટઓ, નેકટાઈઓ, બસો થી અઢીસો જેટલા કોલર અને દસેક જોડી જૂતાં બાળ્યા હતા આમ સરદાર સાહેબે પોતાના વૈભવી ઠાઠનો દેશની આઝાદીની લડત માટે ત્યાગ કર્યો. અને ત્યારબાદ વર્ષ ૧૯૨૧ થી આ પહેરવેશ છોડી ફક્ત ખાદી પહેરવા લાગ્યા હતા અને ૧૯૨૩ થી તો મણીબેન પોતાના હાથે કાંતેલા સૂતરને વણાવી વલ્લભભાઈના કપડાં બનાવતા. અને વર્ષ ૧૯૨૭ પછી સરદાર પટેલ મણિબેનના હાથે કાંતેલા સુતરની ખાદી જ પહેરવાનું પસંદ કરતા.

મણીબેનને સરદાર સાહેબે સત્યાગ્રહ માટે લોકોને જગાડવા અને હિંમત આપવા માટે ૦૯ સપ્ટેમ્બર ૧૯૩૦ના રોજ યરવડા જેલમાંથી પત્ર લખ્યો તેમાં જણાવ્યું કે : તબિયત સંભાળીને ખૂબ કામ કરજે, ખેડા જિલ્લામાં રખડવાનું રાખજે અને લોકોને હિંમત આપ્યા કરજે, માવળંકરને બને તો એક દિવસ મળી આવજે, બાને ફરી વખત મળે તો મળી આવજે. એમને કંઈ પૈસાની જરૂર હોય તો કૃષ્ણલાલને મળી મારા ખાનગી ખાતામાંથી મંગાવી આપી શકાય. તું હાલ ક્યાં રહે છે તે ખબર લખી નથી. હું માની લઉં છું કે દાદુભાઈને ત્યાંજ રહેવાનું રાખ્યું હશે.”

૧૯૨૮માં બારડોલી સત્યાગ્રહના અંત સુધીમાં જ્યારે સરદારને માંદગી અનુભવતા હતાત્યારે એવું સૂચન કરવામાં આવ્યું હતું કે કોઈકે તેમને સચિવ તરીકે મદદ કરવી જોઈએ.ત્યારે મણીબેને કહ્યું: "જો કોઈને રાખવા હોય તો હું કેમ નહીં?" ૧૯૨૯થી બાપુજીના મૃત્યુ સુધીજ્યારે પણ શક્ય હોય ત્યારે મેં તેમનો પત્રવ્યવહાર જાળવી રાખ્યો હતો. મણીબેન એક પ્રસંગ જણાવતા કહે છે કે એક વખત ટાઈમ્સ ઓફ ઇન્ડિયાના રાજકીય વિવેચક કે. ગોપાલસ્વામી મુંબઈના મરીન ડ્રાઈવ પરના તેમના ફ્લેટમાં તેમની મુલાકાતે આવ્યા ત્યારે બાપુજીએ સી. રાજગોપાલાચારીએ લખેલ એક પત્ર મંગાવ્યો. તેઓ એ ભૂલી ગયા હતા કે તેમણે પત્ર ફાડી નાખ્યો હતો અને તેમણે તેને કચરાપેટીમાં ફેંકી દીધો હતો. સદભાગ્યેમેં એ ટુકડાઓ એકઠા કર્યા હતા. તેને પસાર કરતા પહેલા તેમને એક સાથે ગોઠવી ચોંટાડવામાં મને થોડો સમય લાગ્યો. અને આ પત્ર તેમના હાથમાં જ્યારે મે આપ્યો ત્યારે તેઓ એકીટસે મારી સામે જોઇ રહ્યા, જાણે વિચારતા હોય કે આ દીકરી મારુ કેટલું ધ્યાન રાખે છે.

દાંડી કૂચ દરમ્યાન ૧૯૩૦ ના સપ્ટેમ્બર મહિનામાં મણીબેન જેલમાં ગયા અને તેમને પહેલા ખેડા જેલમાં અને ત્યારબાદ સાબરમતી જેલમાં રાખવામાં આવ્યા. સાબરમતીમાં સરદારે મણીબેનને લખેલા પત્રોમાં તેમની હિન્દી અને મરાઠી તાજું કરી લેવાની સલાહ આપી હતી. સાબરમતી સેન્ટ્રલ જેલમાં એક નિયમ હતો કે જે બહેનોને જેલની સજા થઈ હોય તેઓ કાચની બંગડી પહેરી ન શકે. અને હિન્દુ ધર્મ અનુસાર પરણેલી સ્ત્રીઓ માટે હાથમાં બંગડીઓ પહેરાવી એ સૌભાગ્યવંતીનું નિશાન છે અને તેને ઉતારવી તેનો અર્થ એ થાય કે તેનું સૌભાગ્ય સાથે અમંગળ થયું તેમ સૂચવે, આવી એક ધાર્મિક લાગણી હોવાના કારણે જેલમાં પુરાયેલ દરેક પરણીત સ્ત્રીઓએ તેનો સખત વિરોધ કર્યો અને વારંવાર જેલ અધિકારીઓ સાથે ઝઘડા કર્યા, આખરે મણીબેને આ બાબતે જેલ અધિકારી સમક્ષ રજૂઆત કરવા જણાવ્યું ત્યારે હવાલદારે તુમાખી ભરી નજરે જાણે મણીબેનને ડરવતા હોય તેમ ગુસ્સે થઈ જોયું, પરંતુ મણીબેનને તેનો કોઈ ભય નહતો, તેમણે મક્કમતાથી જેલ અધિકારીને જણાવ્યું કે અમારે જેલ બાબતે કોઈ ફરિયાદ નથી કે કોઈ સગવડ નથી જોઈતી, પરંતુ અમારી પરંપરાઓ બાબતે રજૂઆત કરવી છે અને જણાવ્યું કે તમે રોજ ચર્ચમાં જતાં હશો, તમે કરેલ પ્રાર્થનાને વિશ્વાસ સાથે કાયમ કરવા ગાળામાં ક્રોસ પહેર્યો છે, તેવી જ રીતે અમારી બહેનો દેશની આઝાદી ખાતર જેલવાસ ભોગવી રહી છે, અને અમારા ધર્મ અનુસાર પરીણિત સ્ત્રીના હાથમાં કાચની બંગડીઓ અને તેનો રણકાર સ્ત્રીને સૌભાગ્યવંતી છે તેનો વિશ્વાસ અને તેની હિંમત છે, તો આ કાચની બંગડીઓ ઉતારવાનો જે નિયમ છે તે પરત ખેચવામાં આવે. મણીબેનની રજૂઆત જેલ અધિકારીને ગળે ઉતારી અને પરિણામે આ જડ નિયમને નાબૂદ કરવાની પરવાનગી મળી (મણીબેન પટેલ – લે. મેધા ત્રિવેદી). રાજકોટ સત્યાગ્રહ સમયે ઢેબરભાઈની ધરપકડ થયા પછી તરત સરદાર સાહેબે તેમના પુત્રી મણીબેનને રાજકોટ મોકલ્યા. મણીબેને ગામેગામ ફરી લોકજાગૃતિ ટકાવી રાખી. પાંચમી ડીસેમ્બરે તેમની ધરપકડ કસ્તૂરબાની સાથે મણીબેન પણ રાજ્યની જેલમાં પુરાયા.

મણીબેન પટેલે સરદાર સાહેબના અંતિમ સમય સુધી તો સાથ આપ્યો પરંતુ સરદાર સાહેબના સ્વર્ગવાસ બાદ પણ સરદાર સાહેબના પત્રો અને માહિતી જાહેર જનતા સમક્ષ મૂકી. તેમણે પોતાના અંત સામે સુધી સરદાર સાહેબ વિષે લોકોને માહિતગાર કર્યા અને એક સાદગી ભર્યું જીવન જીવ્યા. આજે આપણે જે કાંઈ પણ સરદાર સાહેબ વિષે જાણીએ છે તે મણીબેનને આભારી છે.



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