Sardar Patel's vision: The foundation of India's oil self-sufficiency laid in 1948
सरदार पटेल की दूरदृष्टि: १९४८ में भारत की तेल आत्मनिर्भरता की नींव
स्वतंत्र भारत के
शुरुआती वर्ष चुनौतियों और अवसरों से भरे थे। राष्ट्र नवनिर्माण के पथ पर अग्रसर
था और दूरदर्शी नेताओं के कंधों पर भविष्य की मजबूत नींव रखने की जिम्मेदारी थी।
इसी संदर्भ में, १२ जून १९४८ को भारत के लौह पुरुष, सरदार वल्लभभाई पटेल द्वारा तत्कालीन खान और ऊर्जा मंत्री, श्री एन. वी. गाडगिल को लिखा गया एक पत्र, देश
की ऊर्जा सुरक्षा और आर्थिक विकास के प्रति उनकी गहरी चिंता और व्यावहारिक
दृष्टिकोण को दर्शाता है।
उस समय भारत अपनी
तेल आवश्यकताओं के लिए काफी हद तक आयात पर निर्भर था। यह निर्भरता न केवल नागरिक
जरूरतों और औद्योगिक विकास के लिए चिंता का विषय थी, बल्कि
सेना की परिचालन क्षमता के लिए भी एक महत्वपूर्ण चुनौती थी। सरदार पटेल ने इस
स्थिति की गंभीरता को पहचानते हुए इसे "विदेशी देशों के चंगुल से बचने"
की आवश्यकता से जोड़ा था।
पत्र में सरदार
पटेल ने स्पष्ट किया कि भारत में तेल के ज्ञात भंडार अत्यंत सीमित थे, जिसमें असम का तेल क्षेत्र सालाना केवल २,००,००० टन का उत्पादन कर रहा था। राजपूताना, सौराष्ट्र,
कच्छ और त्रिपुरा जैसे क्षेत्रों में तेल की संभावना तो थी, लेकिन कोई पूर्वेक्षण नहीं किया गया है और इसलिए, यह
निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है कि क्या संभावनाएँ हैं। त्रिपुरा के आसपास के
पूर्वी क्षेत्र में कुछ तेल होने की संभावना है जिसे असम और बर्मा तेल क्षेत्रों
का विस्तार माना जाता है लेकिन उस क्षेत्र में भी कोई पूर्वेक्षण नहीं किया गया
है। इनमें से कुछ क्षेत्रों को अन्वेषण के लिए कुछ विदेशी हितों को दिया गया था
लेकिन युद्ध के कारण कोई प्रगति नहीं हुई।
सरदार पटेल ने इस
बात पर भी प्रकाश डाला कि तेल अन्वेषण एक अत्यंत जोखिम भरा और महंगा कार्य है,
जिसमें करोड़ों रुपये खर्च करने के बाद भी सफलता की कोई गारंटी नहीं
होती। उन्होंने उल्लेख किया कि कुछ तेल कंपनियाँ पहले ही पूर्वेक्षण पर बड़ी रकम
खर्च कर चुकी थीं, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली थी। विश्व स्तर पर,
तेल उद्योग पर अमेरिकी और ब्रिटिश समूहों का प्रभुत्व था, जिनके भूवैज्ञानिक अपने ज्ञान को गोपनीय रखते थे।
इन परिस्थितियों को
देखते हुए, सरदार पटेल का मानना था कि सरकार द्वारा स्वयं तेल
संसाधनों का पता लगाना और उनका दोहन करना अव्यावहारिक होगा। उन्होंने एक
"भारत-विदेशी निगम" (Indo-foreign corporation) के
गठन का सुझाव दिया, क्योंकि भारतीय निजी क्षेत्र के पास भी इस विशाल
कार्य के लिए पर्याप्त संसाधन और विशेषज्ञता नहीं थी। उनका मानना था कि देश को
शीघ्र परिणामों की आवश्यकता है, और यह सहयोग के
माध्यम से ही संभव हो सकता है।
विदेशी कंपनियों के
सहयोग को आकर्षित करने के लिए, सरदार पटेल ने कुछ
महत्वपूर्ण शर्तों की ओर इशारा किया:
- स्थिरता और दीर्घकालिक व्यवस्था: उत्पादन शुरू होने से लगभग ५० वर्षों की अवधि के लिए समझौता।
- निवेश की वसूली और लाभ: अन्वेषण में खोए हुए धन की वसूली और उचित लाभ सुनिश्चित करने का मौका।
- प्रारंभिक चरण में मामूली शुल्क: अन्वेषण और पूर्वेक्षण अवधि के लिए शुल्क कम रखा जाए।
- खनन पट्टे की लंबी अवधि: सरकार की तत्कालीन औद्योगिक नीति में खनिज तेलों के लिए दस साल की समीक्षा के प्रावधान को स्थगित रखने की आवश्यकता।
सरदार पटेल ने यह
भी संकेत दिया कि विदेशी कंपनियाँ शायद सरकार के साथ सीधे पूंजी में भाग लेने के
बजाय भारतीय निजी उद्यमों के साथ सहयोग करना पसंद करेंगी। उन्होंने इस मामले पर
शीघ्र कैबिनेट निर्णय लेने की तात्कालिकता पर जोर दिया।
यह पत्र न केवल
सरदार पटेल की असाधारण दूरदर्शिता को दर्शाता है, बल्कि
उनके व्यावहारिक और परिणामोन्मुखी दृष्टिकोण का भी प्रमाण है। वे अन्य मंत्रियों
के अधिकार क्षेत्र में आने वाले विषयों पर भी गहराई से विचार करते थे और उन्हें
देश की प्रगति के लिए अधिकाधिक उन्नत कदम उठाने के लिए प्रेरित करते थे। उनका
एकमात्र उद्देश्य देश और देशवासियों के लिए सर्वोत्तम परिणाम प्राप्त करना था। यह
घटना भारत की ऊर्जा आत्मनिर्भरता की दिशा में एक प्रारंभिक, किंतु
महत्वपूर्ण विचार प्रक्रिया को रेखांकित करती है।
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