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31-10-2022 - Sardar Patel's Birthday - सरदार-नहेरु के रिश्ते और कुछ यादें सरदार की

सरदार-नहेरु के रिश्ते और कुछ यादें सरदार की

31-10-2022


आज सरदार पटेल के जन्म दिवस पर देश में सरदार पटेल और जवाहर लाल नहेरु दो महानुभावों के संबंध / रिश्तों के बारे में आज कल जो बातें हो रही है, उस विषय पर आज कुछ प्रसंग साझा करना चाहता हूँ। सरदार पटेल के नहेरु के साथ मतभेद जरूर थे लेकिन वे दोनों एक दूसरे के दुश्मन कभी न थे। वर्ष १९४७ के अंतिम महिने की बात है, जब सरदार पटेल और जवाहर लाल नहेरु के मतभेद चरमसीमा पर थे तब दोनों ने अपनी बात और अपना मंतव्य गांधीजी के समक्ष रखा, गाँधीजीने दोनों को सुना और सरदार पटेल से बात करते हुए कहा की :

आप की आजकी लोकप्रियता और प्रतिष्ठा का ख्याल रखते हुए मुझे लगता है की आप को प्रधानमंत्री पद का स्वीकार करना चाहिए!

सरदार पटेलने बहुत विनम्र भाव से गांधीजी को कहा की :

प्रधानमंत्री तो जवाहर लाल बने रहे, मुझे राजकार्य से मुक्त करो यही एक प्रार्थना आप को करता हूँ, यदि में प्रधानमंत्री पद का स्वीकार करता हूँ तो जो लोग मेरे बारे में गलत बातें फैला रहे है उनकी बात को बिना कारण पुष्टि मिल जाएगी।

समझना यह है की भारत आजाद १५ अगस्त १९४७ को हुआ और १९४७ के अंतिम महीने मतलब यह बात १५ अगस्त और ३१ दिसंबर १९४७ के महीनों के दौरान हुई थी। यह बात का ब्योरा सरदार पटेल की पुत्री कुमारी मणिबेन पटेलने अपनी दिन वारी में भी लिखा है।

फ़ैज़पुर कॉंग्रेस अधिवेशन के दौरान जवाहर लाल कॉंग्रेस के प्रमुख चुने गए, उसके बाद नेहरू गुजरात के दौरे पर आए, बड़ौदा स्टेशन से एक बहुत बड़ा जुलूस निकला, बड़ौदा के राज मार्ग पर लोगों ने नेहरू का पुष्प वर्षा के साथ स्वागत किया। जुलूस के दौरान बारिश शुरू हो गई, और बारिश में नेहरू भीग रहे थे, तभी सरदार पटेलने किसी को कहा : 

कोई छाता ले कर आओ और नेहरू को भीगने से बचाओ अगर नेहरू बीमार हो गए तो में क्या जवाब दूंगा? 

लेकिन नेहरू ने छाता ले कर आए व्यक्ति को मना किया और उस व्यक्ति ने सरदार के सामने देखा तब सरदार बोले : 

उनको बोलने दो, आप छाता उनके सर पर लगाकर रखो। 

नेहरू सरदार को ध्यान से देख रहे थे और नेहरू मुसकुराते हुए बोले : 

आप क्यू मेरे सिर पर छाता लगाने को कहते हो, इतने लोग भीग रहे है! 

सरदार बोले : 

आप हमारे मेहमान हो और अभी गुजरात का आधा सफ़र बाकी है। 

इस प्रसंग से समज सकते है की सरदार नेहरू का कितना ध्यान रखते थे।

सरदार स्पष्ट वक्ता थे यह बात सब जानते है, एक किस्सा जो कॉंग्रेस महा समिति के दौरान हुआ। कॉंग्रेस महा समिति की मीटिंग के दौरान मियां इफ़तीखारुद्दीनने मुस्लिम लीग की बात छेड़ी, और उन्होंने मुस्लिम लीग के बारे में कोई ऐसी बात कही जो सरदार पटेल को ईस लिए पसंद नहीं आई क्योंकि उस बात में मुस्लिम लीग की प्रशंसा हो रही थी, सरदार ने मियां इफ़तीखारुद्दीन को कहा :

जिन मुस्लिमों को कॉंग्रेस पर भरोसा हो वे कॉंग्रेस में रहे और जिन मुस्लिमों को कॉंग्रेस पर भरोसा नहीं वे लोग खुशी-खुशी मुस्लिम लीग में जा सकते है। कॉंग्रेस में ऐसे किसी भी मुस्लिमों का काम नहीं जिनकी वफादारी दोनों तरफ हो। अगर आपको भी कॉंग्रेस पर एतबार न हो तो आप भी चले जाए यहाँ से लीग में

भारत के गृहमंत्री सरदार पटेल दिल्ली के पुराने किले में पाकिस्तान से आए निराश्रितों मिलने रात को बारह बजे पहुँच गए और उनको किसी भी प्रकार की तकलीफ न हो और कोई भी घटना न बने इसका निर्देश पुलिस और प्रशासन के लोगों को दिया। सरदार पटेल के दिल में कभी किसी के लिए कोई घृणा नहीं थी। फिर भी गांधीजी को लोग पटेल के बारे में शिकायत करते रहते और ईस बात से सरदार को दुख होता, लेकिन सरदार गांधीजी के समक्ष अपनी बात सच्चाई से करते।

जब गांधीजी के मृत्यु के समाचार उनको मिले तो वे तुरंत बिरला हाउस गए और बापू के देख को देख एक बालक की तरह रो पड़े, सरदार को अपनी पत्नी के अवसान पर भी कभी आँसू नहीं आए थे लेकिन बापू के पार्थिव शरीर को देख एक बालक की तरह रो पड़े।

अंत में सरदार पटेल जब बैरिस्टर की पढ़ाई के लिए लंदन गए, और उन्होंने अपना अभ्यास मिडल टेंपल में शुरू किया। तब उनकी आयु ३४ वर्ष थी, पढ़ाई के दौरान उनके पैरो में ४ आपरेशन हुए, और डॉक्टर कीड जिनका अस्पताल ५५ हार्ले स्ट्रीट पर था उन्होंने ६ जून १९१२ को अपनी रिपोर्ट में लिखा की : 

वल्लभभाई पटेल को इंग्लैंड की सर्दी का मौसम तकलीफ देगा, उन्हें जितनी जल्दी हो सके भारत लौट जाना चाहिए, इंग्लैंड की आबोहवा उनके स्वास्थ्य को बिगाड़ रही है। 

सरदार पटेल एक निडर और सच्चा देश भक्त था जो विपरीत परिस्थिति ओ में भी हार नहीं मानते थे और अपने अंतिम दिनों तक भारत की सेवा करते रहे। 

रशेष पटेल - करमसद


Photo Courtesy : Photo Division of India



Sardar and Gandhi - सरदार और गांधीजी ने एक-दूसरे के प्रति अपनी गहरी भावनाओं को कम शब्दों में बखूबी व्यक्त किया करते थे

सरदार और गांधीजी ने एक-दूसरे के प्रति अपनी गहरी भावनाओं को कम शब्दों में बखूबी व्यक्त किया करते थे



बापू ने जब इक्कीस दिन का उपवास किया तो सरदार श्री को दिल से ही अच्छा नहीं लगा, लेकिन सरदार पटेल उस विभूति से भलीभांति से वाकिफ थे जिसका भगवान भी समर्थन करने को तैयार थे, इसलिए उन्होंने गांधी जी के फैसले को आदर के साथ स्वीकार कर लिया।  सरदार साहब ने जेल से बापू को चिट्ठी लिखकर एक-दूसरे के लिए अपनी गहरी भावनाओं को बहुत अच्छे तरीके से कुछ शब्दों में व्यक्त किया:

आखिरकार भगवान ने आपका समर्थन किया और मैं इस शुभ अवसर पर आपका आशीर्वाद चाहता हूं। प्रभु ने तुम पर बड़ी दया की है। लेकिन अब हम पर भी कुछ दया करो। आपका सेवक वल्लभभाई का प्रणाम।

बापू का व्रत समाप्त होने के बाद फलो की टोकरी आने लगे, गांधीजी ने एक टोकरी सरदार को जेल भेज दिया। तो सरदार ने लिखा कि:

"आपने मुझे आम क्यू भेजे! कौन जानता है कि आप आज क्या करेंगे और आप कल क्या करेंगे। तुम्हारी दया और  अहिंसा  में क्रूरता और हिंसा वही जानता है जो रामबाण से मारा गया हो। अगर मेरे बात से सहमत नहीं हो तो, आप बा (कस्तूर बा) से पूछो, वह भी मुझसे सहमत होगी।

बापू जानते थे कि सरदार को उनका इक्कीस दिनों का उपवास पसंद नहीं आया था। सरदार साहब ने आम को लेकर बापू को चिट्ठी लिखकर बापू से शिकायत करने का मौका नहीं छोड़ा, ठीक वैसे ही जैसे वह एक गुस्सैल बच्चे को लाड़ प्यार करते थे। केवल एक सरदार ही गांधी जी की दया को निर्दयी और अहिंसा को हिंसा कहने की हिम्मत कर सकते है। सरदार की आत्मा बैरिस्टर की है, इसलिए गवाह के रूप में उन्होंने पत्र में कस्तूर बा को पूछने की बात कर दी। 

સરદાર અને ગાંધીજી ઓછા શબ્દોમાં એક બીજા પ્રત્યે ઊંડી લાગણી ખૂબ સારી રીતે વ્યક્ત કરતાં

સરદારશ્રીને બાપુએ જ્યારે એકવીસ દિવસના ઉપવાસ કરે તેમને અંતરથી ગમ્યું નહોતું પણ ઈશ્વર પણ જેમની ટેક રાખવા માટે તૈયાર હોય તેવી વિભૂતિની ઓળખ તો સરદાર પટેલને પૂરેપૂરી હતી, આથી તેમણે ગાંધીજીના નિર્ણયને નત મસ્તકે સ્વીકાર્યો. સરદાર સાહેબે બાપુને જેલમાંથી પત્ર લખ્યો જેમાં ઓછા શબ્દોમાં એક બીજા પ્રત્યે ઊંડી લાગણી ખૂબ સારી રીતે વ્યક્ત કરતાં લખ્યું :

“આખરે ઈશ્વરે આપની ટેક રાખી, આ પુણ્ય પ્રસંગે આપના આશીર્વાદ માગુ છું. પ્રભુની આપના ઉપર અપાર દયા થઈ છે. પણ હવે અમારા ઉપર પણ આપ થોડી દયા રાખજો. લિ. સેવક વલ્લભભાઈના દંડવત પ્રણામ.”

બાપુના ઉપવાસ પૂરા થયા અને પારણા પછી ફળોના કરંડિયા આવવા લાગ્યા, ગાંધીજીએ એક કરંડિયો સરદારને જેલમાં મોકલ્યો. એટલે સરદારે લખ્યું કે :

“મને કેરી શું કામ મોકલી! તમે આજે લાડ લડાવો ને કાલે શું કરો, તે કોણ જાણે. તમારી દયા અને અહિંસામાં જે નિર્દયતા અને હિંસા રહેલાં છે તે તો જેને રામબાણ વાગ્યા હોય તે જાણે. મારુ માનો તો બા ને પૂછજો, એ પણ મારી વાતમાં સંમત થશે જ.

બાપુને જાણ હતી કે સરદારને એકવીસ દિવસના તેમના ઉપવાસ ગમ્યા નથી. એક રિસાયેલ બાળકને જેમ લાડ લડાવે તેમ સરદાર સાહેબે બાપુને કેરી બાબતે પત્ર લખીને લાડ સાથે ફરીયાદ કરવાનો મોકો પણ ન છોડ્યો. ગાંધીજીની દયાને નિર્દયતા અને અહિંસાને હિંસા કહેવાની હિંમત એક સરદાર જ કરી શકે. સરદારનો આત્મા આમ તો એક બેરિસ્ટરનો એટલે સાક્ષી તરીકે તેમણે પત્રમાં કસ્તૂરબાને ટાંક્યા. 



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Did Sardar Patel called Gandhiji a dictator?

Did Sardar Patel called Gandhiji a dictator?



सरदार पटेलने गांधीजी को ध हिंदुस्तान टाईम्स के रीपोर्टर को गांधीजी को स्नेह व धैर्य से शासन करनेवाला तानाशाह बताया

ध हिंदुस्तान टाईम्स ९ मई १९३९

सरदार पटेलने कहा लोग मुझे हिटलर कहते है, लेकिन मैं कहता हूं कि गांधीजी सबसे बडे हिटलर हैं, जिन्हें मैंने देखा है। परंतु वह जो प्रभाव डालते है, वह अनंत प्रेम और धैर्य से पैदा होता है। उनके और जर्मनी के हिटलर के बीच यह खास फर्क है। महात्मा गांधी और अन्य लोगों के बीच अंतर इतना विशाल है, जो उन्हें लोगों का एकमात्र नेता बनाता है। मैं नही जानता कि उनके साथ कार्य करने के लायक हूं, लेकिन हमने उनका विश्वास जीत लिया लगता है। जो भी द्वेषपूर्ण आलोचनाएँ उन्हें सहनी पडती है, जो चाहे कितना भी प्रमुख हो, पर उनके बिना कार्य करने का साहस नही कर सकता। कितना भी कद्दावर नेता हो, उनका सहयोग चाहता है।“

अपने बारे में हुईं आलोचना के बारे में पटेलने कहा “दो या तीन प्रांतों में और अब कुछ राज्यों में मेरे विरुध्ध घातक मिथ्या प्रचार जान-बूझकर  किया जा रहा है। परंतु मैंए जान-बूझकर कोई गलत या असम्मानजनक कार्य नही किया है। मैं इस प्रकार के प्रलोभन के सामने झुकने के बजाय आत्महत्या कर लूंगा। मुझे महात्मा गांधी के साथ कार्य करने का गौरव प्राप्त हुआ है। मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि मैं उनके नाम पर अपने कार्यो के द्वारा कलंक नही लगने दूंगा।“

Ref: Gandhi, Nehru aur Subhash - P N Chopra

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सुभाषचंद्र और सरदार पटेल के बीच तनाव की हकीकत - THE FACT OF THE DISPUTE BETWEEN SARDAR PATEL AND SUBHASH CHANDRA BOSE

सुभाषचंद्र और सरदार पटेल के बीच तनाव की हकीकत 

THE FACT OF THE DISPUTE BETWEEN SARDAR PATEL AND SUBHASH CHANDRA BOSE


वर्ष १९३९ के कांग्रेस अधिवेशन के लिए अध्यक्ष पद के सवाल पर विचार किया गया, तो गांधी ने अध्यक्ष के रूप में जवाहरलाल पर नजर रखी, गांधीजी के अनुसार जवाहरलाल समाजवादियों के जातिवादी दृष्टिकोण और विचारों को शांत कर सकते थे। ब्रिटिश सरकार ने प्रांतीय स्वायत्तता स्वीकार कर ली थी और इसका फायदा तभी मिल सकता था अगर कोंग्रेस एक जुथ हो, जवाहरलाल समाजवादीयो और जातिवादी कट्टरपंथियों को नियंत्रित किया जा सकता था। यह जानकर कि जवाहरलाल का नाम गांधीजी के दिमाग में है, कांग्रेस के कई नेताओं और कार्यकारी समिति के सदस्यों ने लखनऊ सम्मेलन के लिए सरदार पटेल के नाम का सुझाव दिया। और अगर सुझाव सामने आते रहे और चर्चाएँ होती रहीं, तो मतभेद सतह पर आए बिना नहीं रहेता। इस प्रकार, अपने बयान में, सरदार पटेलने कहा:
हालाँकि कुछ मित्रों ने लखनऊ अधिवेशन की अध्यक्षता के लिए मेरा नाम सुझाया है, लेकिन मैं इस चुनाव को सर्वसम्मति से करना चाहता हूँ और इसके साथ ही मैं अपना नाम वापस लेता हूँ। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मैं जवाहरलाल के हर विचार से सहमत हूं। देश जानता है कि कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर जवाहरलाल के  विचार और मेरे विचार अलग-अलग हैं; हालांकि, मैं उन सभी से आग्रह करता हूं कि वे अब तक जवाहरलाल को अध्यक्ष चुने। इसका मतलब यह भी नहीं है कि कांग्रेस समाजवादी सोच को स्वीकार करती है।
लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन में, प्रांतीय स्वराजके चुनावो की सम्पूर्ण व्यवस्था की जिम्मेदारी सरदार पटेल को सौंप दी गई थी,  वर्ष १९३७ के इन चुनावोके रुझान जब आए तो पुरे देश मे कोंग्रेसको बहुत बडी जीत मीली थी। फरवरी १९३८ के हरीपुरा (बारडोली तालुका) कोंग्रेस अधिवेशन जब हुआ त्तब तक जवाहरलाल के साथ साथ कोंग्रेसको समाजवादी और जातिवादीओने पुरा सहकार दिया, यह देखते हुए, गांधी इस तर्क के साथ आए कि यदि कांग्रेस एक या दो साल तक और एक जुथ रही तो अंग्रेजों पर और बेहतर तरीके से दबाव डाला जा सकता है। सुभाष चंद्र बोस को वर्ष १९३७ के चुनावों के दौरान कैद किया गया था, लेकिन चुनावों के बाद उन्हें रिहा कर दिया गया था, और सुभाषचंद्र की मुक्ति को कांग्रेस के समाजवादियों द्वारा उत्साह से स्वीकार। गांधीजी का यह मानना था कि अगर सुभाष बाबू जवाहरलाल के उत्तराधिकारी के रूप में कांग्रेस के अध्यक्ष बनते हैं, तो कांग्रेस के कट्टरपंथी अपने आप खामोश हो जाएंगे। और इस वजह से गांधीजीने अध्यक्ष के लिए सुभाषचंद्र बोझ का सुचन दिया, कांग्रेस पार्टी ने सर्वसम्मति से इस सुझाव को स्वीकार कर लिया। 

लेकिन इसके साथ, एक नई समस्या का जन्म हुआ। नए अध्यक्ष सुभाष चंद्र बोस को कोंग्रेसने सर्वसम्मति से स्वीकार किया, औस समाजवादी लोगों ने समाजवाद की एक जीत के रूप में अपनाया और कांग्रेस की दक्षिणपंथी नीतियों की सार्वजनिक रूप से निंदा करने लगे। और उनका यह मानना था कि सरदार पटेल कांग्रेस की इस दक्षिणपंथी नीति में सबसे सक्रिय व्यक्ति थे। और इसलिए उन्होंने सरदार पटेल के खिलाफ अभियान शुरू कर दिया। और सुभाष चंद्र बोस ने उन्हें कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष के रूप में नहीं रोका, इसलिए सरदार पटेल बहुत नाराज़ थे और अपने एक भाषण में, उन्होंने सार्वजनिक रूप से समाजवादी लोगों पर व्यंग्य किया कि वह शर्मीले, गैर जिम्मेदार और कोई ठोस काम करने में असमर्थ हैं। इस प्रकार, सुभाष चंद्र बोस और अन्य सभी कट्टरपंथी सरदार पटेल से नाराज हुए।

सुभाष चंद्र बोस कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष बनने के लायक नहीं हैं यह बात जल्द ही गांधीजी को अहेसास हुआ, साथ साथ उन्होने महसूस किया कि यह लोग गांधी के विचारों से कोसो दूर है। सुभाष चंद्र एक समाजवादी नहीं थे, लेकिन जयप्रकाश और अन्य समाजवादियों के साथ उनका तालमेल था, जिन्होंने सरदार पटेल के बारे में तीखी टिप्पणी की थी। यद्यपि जवाहरलाल गांधी से अलग, फिर भी उन्होंने गांधी की मर्यादा और विवेक को बनाए रखा। यह सुभाषचंद्र के स्वभाव में नहीं था,गांधी के प्रति गांधी के सम्मान और श्रद्धा के बावजूद, कभी-कभी वह गांधीजी के साथ अपनी मर्यादा लांग देते थे।

परिणाम स्वरूप, गांधीजी और उनके सहयोगियों ने वर्ष १९३९ के त्रिपुरा सम्मेलन में सुभाष चंद्र की अध्यक्षता को समाप्त करने का निर्णय लिया और इसके विपरीत, सुभाष चंद्र बोस ने एक और वर्ष के लिए अपने अध्यक्ष पदके चुनाव के लिए अपनी उम्मीदवारी की घोषणा की। सरदार पटेल, मौलाना और गांधीजी ने भी इस चुनाव को गैर-प्रतिस्पर्धी बनाने की कोशिश की लेकिन सुभाषचंद्र बोस टस से मस नहीं हुए। डो. पट्टाभि सीतारमैया गांधीजी, सरदार पटेल और अन्य वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं के आशीर्वाद के साथ, सुभाष चंद्र बोस के प्रतिद्वंद्वी के रूप में अपनी उम्मीदवारी की घोषणा की। सुभाष चंद्र बोस अपनी जोशीली प्रक्रिया के कारण युवाओं के बीच लोकप्रिय हो गए थे और कांग्रेस के प्रतिनिधियों के बीच भी लोकप्रिय हो गए थे, इस वजह से कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में दूसरी बार सुभाष चंद्र बोस गांधी और सरदार पटेल की इच्छा के विरुद्ध बने।

इस कारण से सुभाष चंद्र और गांधी के अनुयायियों के बीच एक अपरिहार्य दरार बन गई। महासभा में बहुमत होने के बावजूद सुभाष चंद्र के पास कारोबारी समिति में बहुमत नहीं था, और अधिकांश कारोबारे समिति के सभ्य गांधीजी समर्थक थे, इसलिए सभी गांधीवादी कारोबारी सदस्योंने फैसला किया कि नए अध्यक्ष को गांधीजी की सहमति से नये कारोबारी सदस्यो को नियुक्त किया जाना चाहिए और संकल्प पत्र के साथ उन्होंने एकमत होकर सबने इस्तिफा दे दिया। परिणाम स्वरूप, सुभाष चंद्र बोस के हाथ बंधे हुए थे। सुभाष चंद्र बोस ने समझा कि गांधीजी और सरदार के सहयोग के बिना, कांग्रेस अध्यक्ष का ताज एक परीक्षा थी। यदि गांधीजी का बहुसंख्यक समर्थक नए कारोबारी में है, तो कांग्रेस अध्यक्ष के हाथ बंधे रहेंगे, और दूसरी तरफ, यह परंपरा रही कि कांग्रेस के सभी पहले के अध्यक्ष स्वतंत्र रूप से कारोबारे की नियुक्ति कर सकते हैं, कारोबारी सदस्यो के एक प्रस्ताव के साथ अटक जाएगा। इस प्रकार, सुभाष चंद्र बोस को कांग्रेस अध्यक्ष का पद छोड़ना पड़ा।

उपरोक्त राजनीतिक भूकंप के कारण सुभाषचंद्र बोज इतने व्यस्त थे कि वे १९३३ के वर्ष दौरान विट्ठलभाई पटेल (सरदार पटेल के बड़े भाई) का निधन हो गया और उनकी वसीयत को अंजाम देने में देरी हुई, इसलिए विठ्ठलभाई पटेल अपनी वसीयत के व्यवस्थापक के रूप में गोरधनभाई पटेल, जो कलकत्ता के विधायक थे और एक अन्य सुभाष चंद्र बोस, जो विठ्ठलभाई के मित्र भी थे, ने दो व्यक्तियों को नियुक्त किया। दूसरे प्रशासक के रूप में, डॉ गोरधनभाई पटेल ने बार-बार सुभाष चंद्र बोस को वसीयतनामा निष्पादित करने के लिए याद दिलाया लेकिन सुभाष चंद्र बोस ने इस मामले पर पर्याप्त ध्यान नहीं दे पा रहे थे। परिणामस्वरूप, डॉ गोरधनभाई पटेल ने सुभाष चंद्र बोस को वसीयत की मूल प्रति देने के लिए कहा और यदि वे नहीं देंगे तो वे स्वयं अदालत जाएंगे और प्रति प्राप्त करने के लिए कानूनी कार्रवाई करेंगे। इस प्रकार, सुभाष चंद्र बोस मूल वसीयत पटेल को भेजी गई थी। जैसे ही वसीयत की मूल प्रति हाथ में आई, गोरधनभाई वल्लभभाई से मिले। और विट्ठलभाई की वसीयत का विस्तार करते हुए, भले ही सरदार पटेल विठ्ठलभाई की इच्छा से अनभिज्ञ थे, उन्होंने कोई विशेष रुचि नहीं ली, जिसका मुख्य कारण यह था कि विठ्ठलभाईने सुभाषचंद्र पर विश्वास करके वसियत बनाई थी। उनका मानना ​​था कि वे उन्हे वसीयत  में नहीं पड़ना चाहिए। लेकिन जब गोरधनभाई ने मूल प्रति सरदार पटेल के सामने रखी और सरदार पटेल ने पूरी वसीयत ध्यान से पढ़ा। वसीयत के गवाह के रूप में हस्ताक्षर किए गए तीनों बंगाली थे। जब की जिनिवा में विठ्ठलभाई पटेल की मृत्यु हुई, उस वक्त विठ्ठलभाई के गुजराती दोस्तों भुलाभाई देसाई, वालचंद हीराचंद और अंबालाल साराभाई जिनेवा में रहते थे। हालाँकि, उन्हें बताए बिना, तीनों बंगालियों को वसीयत के गवाह के रूप में क्यों चुना गया? यह बात से सरदार पटेल के दिमाग में संदेह पैदा हो गया। इसके अलावा, सुभाष चंद्रा ने वसीयत के अंतिम खंड में जो राशि व्यक्त की थी, उसका इस्तेमाल सुभाष चंद्र को सौंपे गए हिंदुओं के राजनीतिक उत्थान के लिए किया गया था, और इसका इस्तेमाल विदेशों में रह रहे हिंदुओं में राजनीतिक जागरूकता बढ़ाने के उद्देश्य से किया गया था, और उन्होंने थोडी देर सोचा और गोरधनभाई पटेल को विठ्ठलभाई पटेल की इस वसीयत को अदालत में चुनौती देने की जिम्मेदारी सौंपी और अंततः वसीयत झूठी साबित हुई।

इस प्रकार, सरदार पटेल और सुभाष चंद्र बोस के बीच विवाद जारी रहा।
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